Monday, May 30, 2011

समाचार

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बच्चे इस दुनिया के सबसे असहाय सर्वहारा हैं
वेदप्रताप वैदिक

हिंदुस्तान को खुद पर शर्म कब आएगी? कितनी शन्नो अयूब मरेंगी, तब इस देश की नींद खुलेगी? लाखों शन्नो रोज अंग्रेजी की प्राणलेवा चक्की में पिस रही हैं लेकिन उनकी कराह हमारे कानों तक नहीं पहुंचती, क्योंकि वे मरती नहीं हैं। बेचारी शन्नो मर गई, तभी देश को पता चला कि एक अंग्रेजी शब्द की स्पेलिंग गलत बोलने के कारण उसकी जान चली गई। हमारे हिंदी अखबारों और नेताओं ने इस मूल तथ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया है। वे सिर्फ इसे शिक्षिका की ज्यादती कहकर निपट रहे हैं। शन्नो के मां-बाप को कुछ मुआवजा देकर और शिक्षिका को नौकरी से हटाकर सब चुप हो जाएंगे। यह चुप्पी हत्यारी है। शन्नो की हत्या के लिए हम सब जिम्मेदार हैं। शन्नो अकेली नहीं है। शन्नो की ही तरह पिछले साल नोएडा और वाराणसी के दो नौजवानों ने आत्महत्या की थी। उसका कारण भी अंग्रेजी ही थी।

शन्नो की छोटी बहन (प्रत्यक्ष गवाह) पिता अयूब और डॉक्टर जकी अहमद, इन तीनों ने कहा है कि शन्नो को सजा मिलने का कारण अंग्रेजी है। इसमें शक नहीं कि कोई और शिक्षिका होती तो वह इतनी कड़ी सजा नहीं देती और इस शिक्षिका को भी क्या पता था कि इस सजा से शन्नो की मौत हो जाएगी। लेकिन यहां विचारणीय यह है कि किसी भी शिक्षक या शिक्षिका के लिए अंग्रेजी इतना बड़ा मुद्दा क्यों है? वे इतना बड़ा खतरा क्यों मोल लेते हैं? इसका मूल कारण हीन-भाव है। स्वयं शिक्षक यह माने बैठे हैं कि जिसे अंग्रेजी नहीं आती, वह बिल्कुल निरक्षर है, अशिक्षित है, असभ्य हैं। वह इंसान होने के लायक नहीं। वह जानवर है। अगर वह जानवर है तो उसके साथ जानवर जैसा ही बर्ताव करो। शन्नो के मरने का कारण यही है।

शिक्षकों को पता होता है कि जिन बच्चों की अंग्रेजी कमजोर होती है, उनके माता-पिता कौन होते हैं। वे गरीब, पिछड़े, छोटी जात, ग्रामीण और अल्पसंख्यक लोग होते हैं। अगर उनके बच्चों को गाली, मार और मौत भी मिले तो उनके लिए बोलनेवाला कौन है? समाज में जिनके मुंह में जुबान है वे नेता हैं, उद्योगपति हैं, अफसर हैं, डॉक्टर हैं, वकील या पत्रकार हैं। उनके बच्चे भी अंग्रेजी से परेशान हैं लेकिन वे अंगेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते हैं। उनके बच्चों को कौन छू सकता है? इन बच्चों से खुद शिक्षक डरे रहते हैं। शिक्षकों की मोटी तनख्वाहें, असीम सुविधाएं और सम्मान उन्हें अत्याचार करने से रोकते हैं।

लेकिन देश के सरकारी स्कूलों में करोड़ों बच्चों पर रोज बेइंतहा जुल्म होते हैं। बेजुबान बच्चे कुछ कह नहीं पाते। वे दुनिया के सबसे असहाय सर्वहारा हैं। इन सर्वहाराओं की सुध लेनेवाला इस देश में कोई नहीं। इन बच्चों से अगर आप उनकी पढ़ाई के बारे में बात करें तो आप दंग रह जाएंगे। वे बताते हैं कि उन्हें जो पांच-छह विषय पढ़ने पड़ते हैं, उनमें ज्यादा समय अकेले अंग्रेजी पर लगाना पड़ता है। फिर भी नतीजा क्या होता है? लाख रटने के बावजूद स्पेलिंग और ग्रैमर की गलतियां रह जाती हैं। कक्षा में हमेशा नीचे देखना पड़ता है। मन में यह भाव भर जाता है कि हम बिल्कुल निकम्मे हैं। हम में कोई योग्यता ही नहीं है। हम किसी काम के ही नहीं हैं। यदि दूसरे विषयों में हमारे अच्छे नंबर आते हैं तो भी हमें उसका कोई श्रेय नहीं मिलता।

बचपन में पैदा हुआ यह भाव पूरे जीवन को खोखला कर देता है। जिस भवन की नींव ही खोखली हो जाए उसे आप कितना ऊंचा उठा सकते हैं? 61 साल की भारत की शिक्षा का भवन कितना शक्तिशाली है, इसका अंदाज आपको इसी बात से लग सकता है कि हर साल 11 करोड़ बच्चे हमारी प्राथमिकशालाओं में भर्ती होते हैं और बी. ए. तक पहुंचते-पहुंचते उनकी संख्या सिर्फ 30-35 लाख रह जाती है। 95 प्रतिशत बच्चों का क्या होता है? वे आगे पढ़ते क्यों नहीं हैं? वे क्यों भाग खड़े होते हैं? इसका कारण गरीबी वगैरह तो है ही, लेकिन सबसे बड़ा कारण है, अंग्रेजी की थुपाई। अंग्रेजी की अनिवार्यता बच्चों का प्रतिदिन दम घोटती है, उनमें हीनता का संचार करती है और उनके दिलो-दिमाग को निराशा से भर देती है। वे जानते हैं कि वे कितनी ही मेहनत करें, अंग्रेजी में फेल हो जाएंगे। हायर सेकेंडरी बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि सबसे ज्यादा अगर किसी विषय में बच्चे फेल होते हैं तो अंग्रेजी में होते हैं। जो बच्चे किसी तरह पास हो जाते हैं, उन्हें पता होता है कि उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी, क्योंकि उनकी अंग्रेजी कमजोर है और भारत में हर अच्छी नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य है। अगर बी. ए. पास करके भी चपरासी या खलासी की नौकरी ही करनी है तो पढ़ाई बेकार है। क्यों समय और पैसा बेकार किया जाए? दूसरे शब्दों में अंग्रेजी के कारण भारत में शिक्षा का विस्तार नहीं हो रहा है, संकोच हो रहा है।

अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई पर केंद्र और राज्य की सरकारें, जितना पैसा बर्बाद करती हैं। यदि उतना पैसा नौजवानों को काम-धंधे सिखाने पर खर्च किया जाता तो आज भारत अमेरिका, चीन और यूरोप से आगे निकल जाता, भारत में मुश्किल से डेढ़-दो सौ काम-धंधों पर व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है जबकि उन्नत देशों में लगभग तीन हजार धंधे इस दायरे में हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि अंग्रेजी बच्चों को सर्वगुणसम्पन्न बना देगी। अगर वह आ गई तो सब कुछ आ गया। कुछ और सीखने की जरूरत नहीं है। हम यह भूल गए कि विभिन्न विषयों की शिक्षा और कामधंधों के प्रशिक्षण के लिए भी सबसे अच्छा माध्यम स्वभाषा होती है। यदि कुछ बच्चों को अंग्रेजी सिखाना आवश्यक है तो उन्हें दस-बारह साल तक अंग्रेजी की चक्की में क्यों पीसा जाए. कोई भी विदेशी भाषा छह माह में बहुत अच्छी तरह सीखी जा सकती है। मैंने जर्मन, रूसी और फारसी स्वयं इसी तरह सीखी थी।

अंग्रेजी की जरूरत कितने लोगों को हो सकती है? मुश्किल से चार-पांच लाख लोगों को, जिन्हें ज्ञान-विज्ञान में उच्च शोध करना है, पश्चिमी देशों से व्यापार करना है, वैदेशिक कूटनीति चलानी है या पश्चिमी देशों में रहकर नौकरियां करनी हैं। पांच लाख लोगों का पेट भरने के लिए जो बहू 100 करोड़ लोगों का आटा गूंध ले, उसे कौन पागल नहीं कहेगा? यह पागलपन पिछले 61 साल से चल रहा है। इसे कौन रोकेगा? हमारे नेता और राजनीतिक दल इस पागलपन के सबसे बड़े शिकार हैं। उनसे ज्यादा आशा नहीं की जाती। उनकी बला से, कोई शन्नो मरे, उनका क्या बिगड़ रहा है। उन्हें कोई शर्म नहीं आती। यह काम हिंदुस्तान के करोड़ों नौजवानों को करना होगा। अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा के विरुद्ध नहीं, उसकी अनिवार्यता के विरुद्ध, उसके एकाधिकार के विरुद्ध, उसकी प्राणलेवा भूमिका के विरुद्ध।

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अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी समिति, नकोदर (पंजाब)

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Sunday, May 29, 2011

अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी समिति, नकोदर (पंजाब)

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उद्धेश्य : अपने आपमें एक अनूठा प्रयास। मौलिक चिंतन। एक आन्दोलन।
गांधी, शास्त्री जयन्ती- २ अक्तूबर, १९९९ को 'स्वागत पत्रिका' के नाम से लोकसभा सदस्यों को अभिनन्दन रूप में एवं अन्य नेताओं को प्रसाद रूप में 'अस्मिता का शंखनाद' सादर समर्पित करते हुए इस पत्रिका की संपादिका प्रो. प्रितपाल 'बल' ने अपने प्राक्कथन में लेख किया : हटाओ और मिटाओ में आकाश-पाताल का अन्तर है। इस अन्तर को न समझ पाने से बहुत से लोग अंग्रेजी हटाओ का नाम सुनते ही आपे से बाहर हो जाते हैं और इस समिति के सदस्यों को पागल की पदवी से सुशोभित करने लगते हैं। अपना पागलपन हमें स्वीकार है। पर यह पागलपन बुद्धि का दिवालियापन न होकर ठीक वैसा है, जिसके बारे में सूफी फकीर ने कहा है- 'पा गल असली, पागल हो जा।'
हम पागल हैं राष्ट्रीयता के लिए, देश की अस्मिता के लिए, देश के नन्हें-मुन्नों की बुद्धि से हो रहे बलात्कार की रोकथाम के लिए, भारत के मस्तिष्क को विदेशी सड़ांघ से बचाने के लिए, देश के स्वतंत्र चिन्तन को न उभरने देने वाले आवरण को हटाने के लिए। हम अंग्रेजी भाषा के या उसे पढ़ाने के विरोधी नहीं हैं। अंग्रेजी की अनिवार्यता के तथा अंग्रेजी माध्यम की अनिवार्यता के और अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग के विरोधी हैं। हम अंग्रेजी को हटाना चाहते हैं, मिटाना नहीं चाहते। उस स्थान से हटाना चाहते हैं जहाँ रहकर वह हानि पहुँचा रही है। जहाँ हित कर सकती है वहां आदर पूर्वक रखना चाहते हैं। आज हिन्दुस्तान में उसने जो जगह हथिया रखी है, उसके कारण हिन्दुस्तानी बच्चे के दिमाग को लकवा मार रहा है, हिन्दुस्तानी युवकों का मौलिक चिन्तन ध्वस्त हो रहा है।
हमसे कहा जाता है कि माँ बाप को क्यों नहीं समझाते कि वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में न पढ़ावें। इस बारे में हम इतना ही कहेंगे कि आज अंग्रेजी के साथ इज्जत जुड़ी है, रुतबा जुड़ा है और नौकरी जुड़ी है। अत: कौन माँ-बाप अपनी संतान को इनसे वंचित रखना चाहेगा ? हमारी चोट सरकार की उस दुर्नीति पर है जिसके कारण देशी भाषाओं को अपनाने वाला न प्रतिष्ठा का पात्र बन पा रहा है और न भी माने जाने वाली आजीविका का।
हमसे यह भी कहा जाता है कि जब आप अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के विरोधी हैं तो आर्यसमाज, सनातनधर्म, जैनियों, सिक्खों आदि की ओर से बड़े पैमाने पर खोले जा रहे अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों की निन्दा क्यों नहीं करते ? इनके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते ?
इस संबंध में हमारा मानना है कि ये सभी स्कूल सरकारी दुर्नीति की उपज हैं। ये संस्थाएँ स्वेच्छा से इन स्कूलों को नहीं खोल रहीं। सरकार की दुर्नीति से उन ईसाई मिशनरियों के स्कूलों को बढ़ावा मिल रहा था जो अंग्रेजी तथा अंग्रेजियत दोनों के पक्ष में हैं। ये स्कूल उन ईसाई स्कूलों के दुष्परिणाम को कम करने के लिए स्थापित किये जा रहे हैं। सरकारी नीति बदलते ही इन सबका माध्यम लोकभाषा हो जायेगा, ऐसा हमें विश्वास है। हम सरकार के नवोदय स्कूलों के अवश्य विरुद्ध हैं क्योंकि ये अंग्रेजी के प्रति रुझान बढ़ा रहे हैं। हम देहरादूनी शैली के अंग्रेजी स्कूलों के घोर विरोधी हैं, क्योंकि ये स्कूल अंग्रेजी और अंग्रेजियत के प्रचारक हैं।
हमारे ईसाई भाई अंग्रेजी के साथ अपना रिश्ता जोड़कर अपने आपको गैरहिन्दुस्तानी प्रमाणित कर रहे हैं। ईसा मसीह की भाषा अंग्रेजी नहीं थी। उसने अपना उपदेश अरमैक भाषा में दिया था। आज वह भाषा मर चुकी है पर वह हिन्दुस्तानी भाषाओं के ज्यादा नजदीक थी।
हम अंग्रेजी की पढ़ाई बिल्कुल बंद करना नहीं चाहते। हम चाहते हैं कि अंग्रेजी के साथ रूसी, चीनी, अरबी, फारसी, जर्मदा आदि विदेशी भाषाओं का विकल्प रहे। विद्यार्थी इच्छानुसार विदेशी भाषा चुन सके। विदेशी भाषा की शिक्षा वैज्ञानिक ढंग से तथा यहाँ की लोकभाषाओं के माध्यम से दी जाये। उसमें भाषा ज्ञान अर्थात् समझने समझाने की शक्ति पर बल हो, साहित्य पर नहीं। उसे परीक्षा का माध्यम न बनाया जाये। यहाँ की नौकरी के लिए उसका ज्ञान अपेक्षित न हो।
हम विदेशी भाषाओं को राष्ट्रभवन की खिड़कियाँ मानते हैं। कोईर् भी समझदार गृहस्थ अपने भवन में एक ही खिड़की नहीं बनाता। किन्तु हमारे देश के नेताओं ने इस राष्ट्रभवन में अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य खिड़की को बनाया ही नहीं। उन्होंने तो राष्ट्रभाषा की ड्यौढ़ी तथा लोकभाषाओं के दरवाजों को भी बन्द करके अकेली अंग्रेजी की खिड़की के द्वारा ही यहाँ के नागरिकों को गतागत कराने में गौरव समझा है।
आईये इस राष्ट्रीय अभियान में हमारा साथ दीजिए। अपने अपने क्षेत्रों में इस प्रकार के संगठन बनाकर अपने ढंग से अंग्रेजी के दुर्ग को ढाने का प्रयत्न कीजिए।
उन ढोंगी नेताओं को नकारिये जो संसद अथवा विधान सभा में अथवा सार्वजनिक मंच पर अंग्रेजी में बोलने को शान समझते हैं।
प्रकाशित पत्रिका : 'स्वागत पत्रिका' अस्मिता का शंखनाद, संपादिका : प्रो. प्रितपाल 'बल'
पता : अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी समिति, नकोदर-१४४०४० (पंजाब)